नई ग़ज़ल –सतपाल ख़याल
जलने वाली बस्ती के दुख का अंदाज़ लगा कर देखो
पल भर को तुम अपने घर का हिस्सा एक जला कर देखो
बेटी की अज़मत जाने का दुःख
पूछो तुम बाप से जाकर
उसकी जगह पे ख़ुद को रख कर, उसका बोझ उठा कर देखो
जिस्म के साथ जले हैं सारे , दुख, तकलीफ़ें, सपने, खुशियाँ
क्या क्या राख़ हुआ है इसमें , अब तुम राख़ उठा कर देखो
हम चाय की चुस्की लेकर
पढ़ लेते हैं मौत की ख़बरें
जिसके घर मातम पसरा हो , उसके घर में जा कर देखो
अदब, आदाब, सलाम, सलीक़े, रक्खो इन सब को कोने में
शातिर है कम –ज़र्फ़ ज़माना , इसको आँख उठा
कर देखो
घर का मतलब क्या है “ख़याल” और बेघर होना
क्या होता है
जिस बस्ती में घर उजड़े हों , उस बस्ती में जा कर देखो