नज़्म
– जंग रोक दीजिए –सतपाल ख़याल
बिखर
गये हैं कितने घर, ये जंग रोक दीजिए
लहू
बहा इधर –उधर , ये जंग रोक दीजिए
जले
हैं जिस्म आग में , धुआँ – धुआँ है बस्तियां
किसी
के बच्चे मर गये किसी की माँ नहीं रही
कहीं
पिता के हाथ में है लाश अपने बेटे की
कहीं
पे माँ की लाडली सी नन्ही जाँ नहीं रही
ये
मज़हबों के नाम पर न आदमी को बांटिये
न
टूटे और कोई घर, ये जंग रोक दीजिए
अभी
भी वक़्त है कहीं पे बैठ के ये सोचिए
कि
जंग की है आग क्यों लगी हुई यहाँ –वहां
गिरा
न दे ये सबके घर , जला न दे ये सबके घर ,
ये साजिशों
को आग है , जली
हुई यहाँ –वहां
कहीं
कोई हो सुन रहा , यही मेरी है इल्तिजा
मैं कह
रहा पुकार कर , ये जंग रोक दीजिए
बिखर
गये हैं कितने घर , ये जंग रोक दीजिए
लहू
बहा इधर –उधर , ये जंग रोक दीजिए