Friday 27 October 2023

नज़्म – जंग रोक दीजिए

 

नज़्म – जंग रोक दीजिए –सतपाल ख़याल

 

बिखर गये हैं कितने घर, ये जंग रोक दीजिए

लहू बहा इधर –उधर ,  ये जंग रोक दीजिए

 

जले हैं जिस्म आग में , धुआँ – धुआँ है बस्तियां

किसी के बच्चे मर गये  किसी की माँ नहीं रही

कहीं पिता के हाथ में  है लाश अपने बेटे की

कहीं पे माँ की लाडली  सी नन्ही जाँ नहीं रही

 

ये मज़हबों के नाम पर न आदमी को बांटिये

न टूटे और कोई घर,  ये जंग रोक दीजिए

 

अभी भी वक़्त है कहीं पे बैठ के ये सोचिए

कि जंग की है आग क्यों लगी हुई यहाँ –वहां

गिरा न दे ये सबके घर , जला न दे ये सबके घर ,

ये साजिशों को आग है , जली हुई यहाँ –वहां

 

कहीं कोई हो सुन रहा , यही मेरी है इल्तिजा

मैं कह रहा पुकार कर  , ये जंग रोक दीजिए

 

बिखर गये हैं कितने घर , ये जंग रोक दीजिए

लहू बहा इधर –उधर , ये जंग रोक दीजिए

 

 

 

 

 

Monday 16 October 2023

इस दिल में एक दो बस अरमान रह गये हैं-उड़ान *

 
ग़ज़ल


इस दिल में एक दो बस अरमान रह गये हैं
दिल के मकां में अब ये महमान रह गए हैं
 
ख़ुद को हूँ जिसने चाहा आगे निकल गया वो
दुनिया की फ़िक्र करते नादान  रह गए हैं
 
आने को है क़यामत बेबस है क्या करे वो
दुनिया में इक्का-दुक्का इंसान रह गए हैं
 
कुछ सीख होशियारी ,कुछ सीख दुनियादारी
 
 
क्यों अब ख़याल उसका आता नहीं है मन में
गुल ले गये हैं ताज़िर,गुलदान रह गये हैं
 

कभी दो बूँद गले से उतार कर देखो- उड़ान *

 
कभी दो बूँद गले से उतार कर देखो
कभी खुमार में दो पल गुज़ार कर देखो
 
मैं उसके दिल में हूँ तो अश्क बनके टपकूंगा
कि मेरे नाम से उसको पुकार कर देखो
 
मजा नहीं है फ़कत जीतने में हर बाज़ी
मजा तो हार में भी है जो हार कर देखो
 
कहीं मिले तो कहो तुम हूर जन्नत की
यूं आईने में उसे तुम उतार करा देखो
 
“ख़याल” क्या है जुदाई , विसाल क्या शैय है
कि दिल में हिज़्र का खंजर उतार कर देखो

जितने झूले थे वो सब पक्के घरों के पास थे-उड़ान *

 
जितने झूले थे वो सब पक्के घरों के पास थे
बाढ़ के, बरसात के डर छप्परों के पास थे
 
 
बिल्लियों से रोटियाँ तरकीब से छीनी गईं
छल- कपट के सब तराज़ू बन्दरों के पास  थे
 
लोग इक दूजे को पत्थर मारकर ख़ुश हो गये
साज़िशों के राज़ लेकिन  पत्थरों के पास थे
 
हाथ में तामीर की ईंटें रही हैं उम्र भर
आंख में सपने घरों के, बेघरों के पास थे
 
लोग सब कुछ जानते थे फिर भी पीछे चल पड़े
कुछ नहीं था बस दिलासे रहबरों के पास थे
 
अर्जियां थी छुट्टियों के नौकरों के पास बस
गाड़ियां बंगले बगीचे अफ़सरों के पास थे
 
कैंचियों के डर परिंदों के मनों में थे “ख़याल” 
हौसलों के पंख भी लेकिन परों के पास थे
 
    

ज़िन्दगी जैसे बने , वैसे बिताकर चल पड़ो- उड़ान *

 
ज़िन्दगी जैसे बने , वैसे बिताकर चल पड़ो
बोझ है तो बोझ को सर पर उठाकर चल पड़ो
 
अश्क़ गुदड़ी में छुपाकर रख लो गौहर की तरह
फेक सी मुस्कान को लब पर सजाकर चल पड़ो
 
दर्द की आदत ही पड़ जाए तो फिर तुम यूं करो
पैर में काँटा कोई फिर से चुभाकर चल पड़ो
 
जिनको ढोते ढोते कितने लोग मिट्टी हो गए
तुम भी उन सारी सलीबों को उठाकर चल पड़ो
 
ख़ाक़ हो जायेंगे सारे चोर हों या साध हों
क्या भला है, क्या बुरा ,सब कुछ भुलाकर चल पड़ो
 
अपने होने की भी कोई तो निशानी दो 'ख़याल'
चंद अपने शेर यारों को सुनाकर चल पड़ो

पुश्तैनी घर बेच आये हैं-उड़ान *

 
ग़ज़ल
पुश्तैनी घर बेच आये हैं
आज बहुत हम पछताए हैं
 
पीतल जैस्सी धुप खिली है
याद सुनहले पाल आये हैं

किस्मत के खाली झोले में
उम्मीदें भर कर लाये हैं
 
रिश्तों पे इलज़ाम नहीं है
ख़ुद ये धागे उलझाए हैं
 
अपनी रूह का कोई  हिस्सा
तेरी गली में छोड़ आये हैं 
 
 
 

इधर बस्तियां जल रही हैं दुखों में-उड़ान*

 

इधर बस्तियां जल रही हैं दुखों में
उधर जंगलों में खिली चांदनी है

कमी क्या है पूछो अंधेरों  से जाकर
वही हैं सितारे वही चादनी है
 
ख़याल इसको समझो यही तो है जीवन
कभी है अमावस ,कभी चांदनी है
 
ख्यालों में तेरे बहे  जा रहे हैं
पानी में जैसे घुली चांदनी है
 
 


मेरी आंखों में ख़्वाब है फिर से-उड़ान *

 

ग़ज़ल सतपाल ख़याल
मेरी आंखों में ख़्वाब है फिर से
ख़त में लिपटा गुलाब है फिर से
 
फिर उदासी है बेसबब सी कोई
शाम है और शराब है फिर से
 
तुमने फाड़ी हैं अर्ज़ियाँ मेरी
यानि मुझको को जवाब है फिर से

तेरे लिक्खे हुए थे ख़त जिसमें 
हाथ में वो किताब है फिर से
 

 

 

Wednesday 11 October 2023

हुक्म चलता है तेरा तेरी ही सरदारी है- 93-उड़ान*

 हुक्म चलता है तेरा , तेरी ही सरदारी है
तू  है पैसा, तू ख़ुदा ,  तेरी वफ़ादारी है

नंगापन भी तो बिका फ़न की तरह दुनिया में 
अब तो  जिस्मों की नुमाईश  ही अदाकारी है

कट गया  दिन तो  मेरा भीड़  में  जैसे-तैसे
लेकिन  अब  चाँद  बिना  रात बहुत  भारी है

ग़ौर   से  देख  ज़रा   बीज से अंकुर फूटा 
बस करिश्मा  सा ख़ुदा  का  ये ख़ल्क़ सारी है 

कट के गिर जाना है बस  पेड़ की तरह इक दिन 
रात -दिन काट रही वक़्त की ये आरी है 


 छोड़ दो  ,  ज़िद न करो  हार चुके हो अब तुम 
अब  कोई  दांव  न  खेलो तो  समझदारी  है

उधर तुम हो , ख़ुशी है

  उधर तुम हो , ख़ुशी है इधर बस बेबसी है   ये कैसी रौशनी है अँधेरा ढो रही है   नहीं इक पल सुकूं का ये कोई ज़िंदगी है   मुसीबत है , बुला ले ये ...