Wednesday 29 March 2023

ग़ज़ल -67-बिछड़ते वक़्त का मंज़र निकालो-उड़ान*

बिछड़ते वक़्त का मंज़र निकालो
हमारी आंख से कंकर निकालो
मुझे वो दोस्त कहकर ही मिला था
मेरी अब पीठ से ख़ंजर निकालो
अगर ये नौकरी जाती है ,जाए
तुम अपने ज़ेहन से ये डर निकालो
अगर साज़िश की कैंची पर कतर दे
तुम अपनी हिम्मतों के पर निकालो
वो आँगन ,नीम ,पीपल, बूढ़ी अम्माँ
बसा है याद में वो घर निकालो
जब आओ घर तो चिंता छोड़ दो सब
तुम अपनी सोच से दफ़्तर निकालो
उतर जाऊं अँधेरी क़ब्र में मैं
थकन कहने लगी बिस्तर निकालो
यहाँ बैठूं वहां से ऊब जाऊं
मेरे पैरों से तुम चक्कर निकालो
इसे तूफ़ाँ से टकराना पड़ेगा
तुम इस कश्ती का अब लंगर निकालो
जो रब्ब को ढूँढना है, ढूँढो ख़ुद में
बसा जो बूँद में सागर निकालो
"ख़याल" ईमानदारी बेच दो अब
बचा है आख़री ज़ेवर निकालो

Friday 24 March 2023

ग़ज़ल -66-सुकूँ की छाँव बिपताओं के आगे है -दस्तक

सुकूँ की छाँव बिपताओं के आगे है
अभी तो धूप ही पाँव के आगे है
अभी तुम पाने –खोने में ही उलझे हो
ख़ुदा का घर तमन्नाओं के आगे है
अभी काग़ज़ पे उतरेंगे कई नग़्मे
अभी तस्वीर रेखाओं के आगे है
ख़ुशी है ज़ेहन में छोटा सा इक कोना
जो आशाओं निराशाओं के आगे है
है दीवानों का दुनिया से अजब रिश्ता
कि इक बारात बेवाओं के आगे है
“ख़याल” इस बात को तुम ज़ेहन में रखना
झुलसती धूप भी छाँव के आगे है

Friday 17 March 2023

ग़ज़ल -65-नाख़ुदाओं से डर गया फिर मैं-उड़ान *

 
नाख़ुदाओं से डर गया फिर मैं
और भँवर में उतर गया फिर मैं
दिल से निकला तो आंख तक आया
बनके आंसू बिखर गया फिर मैं
मन उड़ा ले गई कोई चिंता  
जिस्म लेकर ही घर गया फिर मैं
मैं तो छलका था अपनी आंखों से
तेरी आंखों में भर गया फिर मैं
ख़ुद को खोजा यहाँ –वहां मैनें
मन जिधर था उधर गया फिर मैं
 मेरे होने का ही तो  झगड़ा था
जी न पाया तो मर गया फिर मैं
 घर के रस्ते में मैकदा था “ख़याल”
लोग ख़ुश थे उधर गया फिर मैं
 
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Wednesday 15 March 2023

ग़ज़ल-64-नाखुदाओ ये चाल क्यों है फिर-उड़ान *

 

नाखुदाओ ये  चाल क्यों है फिर

इस नदी में उबाल क्यों है फिर

 

मौत इक दिन रिहाई दे देगी

ज़िंदगी तेरा जाल क्यों है फिर

 

गर तमाशा है सब तो ख़ुश रहिए

रंज क्यों है ? मलाल क्यों है फिर

 

मैं तो साहिल पे हूँ नज़ारे को

पानियों में उछाल क्यों है फिर

 

ग़र सियासत है नेक नीयत तो 

सबका बेहाल हाल क्यों है फिर

 

सिलसिला है न राबता उससे

दिल में उसका “ख़याल” क्यों है फिर

 

 

Friday 10 March 2023

ग़ज़ल-63-अभी साया तेरे पाँव के आगे है- उड़ान *

अभी साया तेरे पाँव  के आगे है
 सफ़र में धूप तो छाँव  के आगे है
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सुकूँ की छाँव बिपताओं के आगे है
अभी तो धूप ही पाँव के आगे है
 
यही रहबर हमारा है यही मंज़िल
जो दो गज रास्ता पाँव  के आगे है
 
वहां तक छोड़ने आती थी माँ मुझको
कि वो जो मोड़ इक गाँव  के आगे है
 
कब आयेंगे गए परदेस जो बेटे
ये चिंता मर रही माओं के आगे है
 
मुकद्दर है,”ख़याल” अब क्या पता क्या हो
 कि ये पत्थर तमन्नाओं के आगे है
 

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Tuesday 7 March 2023

ग़ज़ल-62-मुझको यूं ही उदास रहने दे- उड़ान *


                मुझको यूं ही  उदास रहने दे
                             फ़ेंक दे जाम , प्यास रहने दे
 
                              दुःख मुझे रब से जोड़ देते हैं    
                              दुःख मेरे आस पास रहने दे
 
                             आज बोतल को मुंह लगायेंगे
                             आज साक़ी गिलास रहने दे
 
                               तू मुकद्दर समझ अंधेरों को
                 रौशनी के क़ियास रहने दे
 
                                मत बता इनको ज़िंदगी क्या है
                                अपने  बच्चे पुर-आस रहने दे   
 
                                 ख़ुश रहेंगे तो फिर कहेंगे क्या
                                 शाइरों को उदास रहने दे
 
                                  मैं तेरी दोस्ती से वाक़िफ़ हूँ
                                  छोड़ ए ग़म -शनास रहने दे
 
                                   जिस्म अब राख़ हो चुका है “ख़याल”                                        जल चुका है, लिबास रहने दे                                                                                          
                                  
                              


Monday 6 March 2023

ग़ज़ल -61 -न मैं जीता हूँ , तू न हारी है-उड़ान *

मैं न जीता हूँ , तू न हारी है
ज़िंदगी तुझसे जंग ज़ारी है

कितनी हल्की हैं मेरी सब ग़जलें 
 एक रोटी भी इनसे भारी है 
 
फ़र्ज़ पूरा किया चराग़ों ने
 आगे सूरज की ज़िम्मेदारी है
 
 मीर पत्थर जो रोज़गार का है
इश्क़ से भी ज़्यादा भारी है
 
     इसको भी फ़न समझ रहे हैं लोग
नंगे होना भी अदाकारी है ?

    मुख़्तसर है सफ़र मुहब्बत का
पास बैठी हुई सवारी है
 
   हां मेरी याद उस दुपट्टे पर  
  इक चमकती हुई किनारी है
 
एक मिट्टी के रंग कितने हैं
कौन माली है किसकी क्यारी है
 
वक़्त क्या है “ख़याल” सुन हमसे
रात –दिन चलने वाली आरी है

 

Thursday 2 March 2023

ग़ज़ल -60-मुझको कश्ती में भंवर लगता था-उड़ान*

 
मुझको कश्ती में भंवर लगता था
नाख़ुदा से ही तो डर लगता था
 
डांट देना तो बड़ी बात थी तब
बाप की घूर से डर लगता था
 
पास आये तो दिखी दीवारें
दूर से देखें तो घर लगता था
 
डांट के मुझको वो रो पड़ती थी
घर में जब माँ थी तो घर लगता था
 
ज़िंदगी कस के पकड़ रक्खी थी
इसलिए मौत से डर लगता था
 
गीत गाते थे पखेरू पहले
पेड़ पर फिर ही समर लगता था
 
उसके दिल में तो लगावट भी न थी
कुछ नहीं था हाँ मगर लगता था

                             अब पहाड़ों में मेरा घर है “ख़याल”
बस में बैठो तो सफ़र लगता था 


उधर तुम हो , ख़ुशी है

  उधर तुम हो , ख़ुशी है इधर बस बेबसी है   ये कैसी रौशनी है अँधेरा ढो रही है   नहीं इक पल सुकूं का ये कोई ज़िंदगी है   मुसीबत है , बुला ले ये ...