सब तेरे नाम से बुलाते हैं
ये हुनर वक़्त ने सिखाया हमें
आँख रोए तो मुस्कुराते हैं
लोग हंसते हैं दिल-शिकस्ता पे
राह मुश्किल है शौक़ की और हम
बुतशिकन मेरे न काफ़िर मेरे
मैं नमाजी हूँ न मंदिर मेरे
टीस इस दिल से उठी है शायद
“ज़ख्म ग़ायब है बज़ाहिर मेरे”
वक़्त आने पे बदल जायेंगे
हैं तो कहने को ये आखिर मेरे
रात कटते ही सहर आयेगी
सोचता क्या है मुसाफ़िर मेरे
मै न उर्दू ,न मैं हिंदी साहिब
बस ग़ज़ल हूँ मैं ए शाइर मेरे
कितने रंगो में है रौशन मिट्टी
ए ख़ुदा! मेरे, मुसव्विर मेरे
ये हरे लाल से परचम जिनके
मैं ख़ुदा हूँ ये हैं ताजिर मेरे
सतपाल ख़याल
देहरी पर इक दीप जला कर बैठी
है
कोई विरहन ख़्वाब सजा कर बैठी है
सूरज की तस्वीर बना कर बैठी है
रात हमें कैसे उलझा कर बठी
है
किस्मत उड़ने देती है कब
सपनों को
पाँव की जंजीर बना कर बैठी है
पास में उसके दीप जलाकर बैठी है
रोते रोते हंसने लग जाती है देख
कैसे दुःख का बोझ उठा कर बैठी है
दुख की गठरी धोते रहना उफ़ नही कहना है
जब तक सांस चलेगी तब तक ज़िंदा रहना है
दुख रोटी है ,दुख चूल्हा है ,दुख ही पेट की भूख
दुःख ओढ़ा है , दुख ही बिछाया , दुख ही पहना है
चिंता साथ हुई है पैदा ,साथ ही जायेगी
विरहन का सिंगार है चिंता ,
चिंता बिंदिया , चिंता काजल चिंता गहना है
पहना है
इस तिनके को इस दरिया के साथ ही बहना है
अंतिम रेखा दूर बहुत है , चलते रहना है
पलकों
पर इक आंसू आकर ठहरा है
मेरे दुःख पर चौकीदार का पहरा है
सागर पर इक बूँद का कैसा पहरा है
पलकों पर इक आंसू आकर ठहरा है
ख़ुशियों
पर इस चौकी दार का पहरा है
कितने
दुःख बैठे इसकी गहराई में
दिल तो अपना सागर से भी गहरा है
कैसा
सपना देख रहा है पागल मन
आगे
पीछे बस सहरा ही सहरा है
रात भले कितनी भी लम्बी हो जाए
मेरी आंख में सपना बहुत सुनहरा है
जंगल
की फरियाद सुनेगा कौन “ख़याल”
जिसके
हाथ में आरी है वो बहरा है
किसी ने की है
ख़ुदकुशी , मरा है आम आदमी
कि जिंदगी से इस कदर
खफ़ा है आम आदमी
ये मजहबी फसाद सब
,सियासती जूनून हैं
जुनू की आग में सड़ा
जला है आम आदमी
ख़ुद अपना खून बेचकर
खरीदता है रोटियां
गरीब है इसीलिए बिका
है आम आदमी
ख़याल में है रोटियाँ
तो ख़्वाब में भी रोटियां
बस इनके ही जुगाड़
में मरा है आम आदमी
खुशी मिली उधार की .लिया मकां कर्ज़ पर
यूं उम्र बहर के
कर्ज़ में दबा है आम आदमी
सियासती फसाद हो
,बला हो कोई कुदरती
है बेगुनाह पर सदा
, मरा है आम आदमी
ग़ज़ल
हमसे मिलने कैसे
भी करके बहाने आ गया
यार अपना हाले-दिल
सुनने –सुनाने आ गया
कोंपलें फूंटी भार
आने को थी कि फिर से वो
ज़र्द मौसम लेके हमको
आजमाने आ गया
मजहबी उन्माद भडका
जब हमारे शह्र में
मेरा हमसाया ही मेरा
घर जलाने आ गया
वक़्त ने कल फूंक
डाला था चमन मेरा मगर
आज वो कुछ फूल गमलों
में उगाने आ गया
बह गईं सैलाब में सब
हस्ती गाती बस्तियां
अब वो गोवर्धन को उंगली
पे उठाने आ गया
कुछ ही दिन बीते
ख़याल अपने यहाँ पर चैन से
फेर फिर तकदीर का
हमको डराने आ गया
फिर मैं तेरे ख़्वाब सजा कर देखूंगा
गाँव , गली ,खिड़की से पूछूंगा जाकर
मैं तुम को आवाज़ लगा कर देखूंगा
आंखों के पानी से लिखूंगा गजलें
मैं पानी से दीप जला कर देखूंगा
लोग सलीब उठा कर कैसे चलते हैं
मैं इक शख्स का बोझ उठा कर देखूंगा
कोई एक सुबह तो अच्छी आएगी
मैं इक आस की जोत जला कर देखूंगा
हो सकता है कोई किनारा मिल जाए
दूर क्षितज के पार मैं जा कर देखूंगा
सूना कर देखूंगा
जुटा कर देखूंगा
कमा कर देखूंगा
उधर तुम हो , ख़ुशी है इधर बस बेबसी है ये कैसी रौशनी है अँधेरा ढो रही है नहीं इक पल सुकूं का ये कोई ज़िंदगी है मुसीबत है , बुला ले ये ...