देहरी पर इक दीप जला कर बैठी
है
कोई विरहन ख़्वाब सजा कर बैठी है
सूरज की तस्वीर बना कर बैठी है
रात हमें कैसे उलझा कर बठी
है
किस्मत उड़ने देती है कब
सपनों को
पाँव की जंजीर बना कर बैठी है
पास में उसके दीप जलाकर बैठी है
रोते रोते हंसने लग जाती है देख
कैसे दुःख का बोझ उठा कर बैठी है
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