Tuesday 20 February 2024

मैं शायर हूँ ज़बाँ मेरी कभी उर्दू कभी हिंदी*

मैं शायर हूँ ज़बाँ मेरी कभी उर्दू कभी हिंदी
कि मैंने शौक़ से बोली कभी उर्दू कभी हिंदी

यहाँ हिन्दी भी दुःख में है तो उर्दू भी परेशां है 
हैं  बेबस एक ही जैसी कभी उर्दू कभी हिंदी

अदब को तो अदब रखते ज़बानों पर सियासत क्यों
सियासत ने मगर बाँटी कभी उर्दू कभी हिंदी

जो आसां हो ,सरल ,सीधी , ज़बां अपनी 
ये मेरी भी है तेरी भी,   कभी उर्दू कभी हिंदी

इसी मिट्टी की ख़ुशबू है ,इसी मिट्टी से बाबस्ता 
कभी ग़ालिब ,कभी तुलसी ,कभी उर्दू कभी हिन्दी 


Monday 19 February 2024

New Ghazal- ख़यालों से बनाई क़ैद में था *


मैं अपनी ही बनायी क़ैद में था 
मैं अपनी सोच की ही क़ैद में था 

अंधेरों ने कभी घेरा है मुझको 
कभी  मैं रौशनी की क़ैद में था 

डरा पल तौलते ही वो अचानक 
मेरे जैसा था वो भी क़ैद में था 

रिहाई हो रही थी तब मैं समझा
मैं अपने जिस्म की ही क़ैद में था

"ख़याल" उड़ जाने की चाहत बहुत थी 
मगर पन्छी किसी की  क़ैद में था 

Sunday 11 February 2024

मोहब्बत पुल बनाती है तो नफ़रत तोड़ देती है - नई ग़ज़ल *

मोहब्बत पुल बनाती है तो नफ़रत तोड़ देती है 
कि हर सदभाव का धागा सियासत तोड़ देती है 

कोई मज़बूत कितना भी  हो  ग़ुर्बत तोड़ देती है 
ग़रीबों को यहाँ  पैसों की क़िल्लत तोड़ देती है 

बचा लेती है जैसे तैसे शाहों की हवेली को 
ग़रीबों  के मगर छप्पर  हुकूमत तोड़ देती है 

कई  लांछन हैं मक्कारों पे पर  वो मौज़ करते हैं 
मगर  ख़ुद्दार  को छोटी सी  तोहमत तोड़ देती है  

हज़ारों के थे कल जो बैल अब कूड़े पे बैठे हैं  
समय की मार ऐसी है ये क़ीमत  तोड़ देती है 

किसी भी आदमी को कर तो देती है ये दौलतमंद 
मगर ये चार सौ बीसी है , बरकत तोड़ देती है 

हरा देता है इक छोटा सा तिनका  ही "ख़याल" इसको 
 नदी की धार कहने को तो परबत तोड़ देती है 

Thursday 1 February 2024

यूँ नहीं इस शहर में मेरा कोई भी घर नहीं -नई ग़ज़ल*

यूं नहीं कि सर पे कोई छत नहीं या घर नहीं 
हाँ मगर माँ -बाप का साया अभी सर पर नहीं
 
 टूटने की हद से आगे खींचती है ज़िंदगी 
मैं भी हैरां हूं मैं आख़िर टूटता क्यों कर नहीं 

कौन सी ये राह है लेकर चली है किस तरफ़ 
चल रहा जिस राह पर उस पर तो मेरा घर नहीं 

हम थे जब तक पास  पीली पत्तियों का शोर था 
अब तो महके हैं तुम्हारे  बाग़ अब पतझर नहीं  

किस तरह होगा गुज़ारा , घर चलेगा किस तरह 
इसके सिवा अब ज़हन में मेरे कोई भी डर नहीं 

दिल में ही बस क़ैद हैं ख़ुश-रंग सी कुछ हसरतें 
तितलियाँ तो हैं मगर इन तितलियों के पर नहीं 



 

उधर तुम हो , ख़ुशी है

  उधर तुम हो , ख़ुशी है इधर बस बेबसी है   ये कैसी रौशनी है अँधेरा ढो रही है   नहीं इक पल सुकूं का ये कोई ज़िंदगी है   मुसीबत है , बुला ले ये ...