कि मैंने शौक़ से बोली कभी उर्दू कभी हिंदी
यहाँ हिन्दी भी दुःख में है तो उर्दू भी परेशां है
हैं बेबस एक ही जैसी कभी उर्दू कभी हिंदी
अदब को तो अदब रखते ज़बानों पर सियासत क्यों
सियासत ने मगर बाँटी कभी उर्दू कभी हिंदी
जो आसां हो ,सरल ,सीधी , ज़बां अपनी
ये मेरी भी है तेरी भी, कभी उर्दू कभी हिंदी
इसी मिट्टी की ख़ुशबू है ,इसी मिट्टी से बाबस्ता
कभी ग़ालिब ,कभी तुलसी ,कभी उर्दू कभी हिन्दी