Friday 20 January 2023

ग़ज़ल -51 -अपने होठों पे प्यास रखता हूँ-उड़ान *

  

अपने होठों पे प्यास रखता हूँ
ख़ुद को यूं ही उदास रखता हूँ
 
दिल में क्या है वो पूछता है मुझे
फिर मैं खाली गिलास रखता हूँ
 
मुझको दरवेश अच्छे लगते हैं
सूफियों सा लिबास रखता हूँ  
 
कंठ बशक जले हलाहल से
मैं लबों पे मिठास रखता हूँ
 
हो तबीयत उदास कितनी ही
मैं लबों पे मिठास रखता हूँ
 
दुःख कभी छोड़ कर नहीं जाते
इनको मैं आस –पास रखता हूँ
 
कोई देखे न तीरगी मन की
मुख पे झूठी उजास रखता हूँ
 
ज़िंदगी और शाइरी को “ख़याल”
मैं बहुत पास–पास रखता हूँ
 
 
 
 
 
 
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Monday 9 January 2023

ग़ज़ल -50 -रंज़ दिल से निकाल देता हूँ -उड़ान *

 रंज़ दिल से निकाल देता हूँ
ग़म को प्यालों में डाल देता हूँ
रोज़ हंसता है आसमाँ मुझ पर
रोज़ पत्थर उछाल देता हूँ
ख़ुद से कहता हूँ मौत बख़्शिश है
ज़ेहन से डर निकाल देता हूँ
बात जब भी छिड़ी मुहब्बत की
बात को हँसके टाल देता हूँ
ये घटा, फूल, चाँद और धनक
सबको तेरी मिसाल देता हूँ
घर है, दफ़्तर है ,दुनियादारी है
ख़ुद को सांचों में ढाल देता हूँ
क़ैद अच्छी लगी रिहाई से
ख़ुद शिकारी को जाल देता हूँ
कौन अपना है और पराया कौन
एक सिक्का उछाल देता हूँ
नोक -पलकें संवार कर ग़म की
ग़म को शे’रों में ढाल देता हूँ
जब भी आसानियाँ बढ़ी हैं “ख़याल”
ख़ुद को मुश्किल में डाल देता हूँ

Saturday 7 January 2023

ग़ज़ल-49- आँगन में ही फूल खिला था- उड़ान *

आँगन में ही फूल खिला था
और मैं , रब्ब को ढूँढ रहा था
बिछिया थी तेरे पैरों में
मेरी उंगली में छल्ला था
दिल की बात हो या फिर घर की
दोनों में कुछ टूट चुका था
सहर हुई थी, सच है, लेकिन
तब तक सपना डूब चुका था
इसका उसका तेरा मेरा
मनका –मनका मन बिखरा था
यादों के बक्से से कल इक
रेशम का रुमाल मिला था
क़ीमत सोने से ज़्यादा थी
बचपन , पीतल का छल्ला था
याद "ख़याल" आई वो लड़की
आंसू बनकर दिल छलका था

Thursday 5 January 2023

ग़ज़ल-48-हर घड़ी यूँ ही सोचता क्या है? -उड़ान *

हर घड़ी यूँ ही सोचता क्या है?
क्या कमी है ,तुझे हुआ क्या है?
किसने जाना है, जो तू जानेगा
क्या ये दुनिया है और ख़ुदा क्या है?
दर-बदर खाक़ छानते हो तुम
इतना भटके हो पर मिला क्या है?
एक अर्जी खुशी की दी थी उसे
उस गुज़ारिश का फिर हुआ क्या है?
मुस्कुरा कर विदाई दे मुझको
वक़्ते-आखिर है , सोचता क्या है?
दर्द पर तबसिरा किया उसने

हमने पूछा था बस दवा क्या है? 

ग़ज़ल -47- देखते-देखते गया मौसम- उड़ान *

देखते-देखते गया मौसम
सोचिये अब भला-बुरा मौसम
टकटकी बांधे देखता मैं रहा
और धुएँ सा पसर गया मौसम
एक छ्ल्ला मिला है पीतल का
मुझको अलमारी में मिला मौसम
एक दिन मिल गया वो मिट्टी में
सख़्त हालात से लड़ा मौसम
मेरे जैसे उदास सा ही दिखा
बाद मुद्धत के जो मिला मौसम
धूप और छांव ज़िंदगी है "ख़याल"
ज़र्द होगा कभी हरा मौसम॥

ग़ज़ल-46- तुझ पे क़लमकार ,ऐतबार नहीं है- उड़ान*

 ग़ज़ल

तुझ पे क़लमकार ,ऐतबार नहीं है
झूटे हैं अख़बार ,ऐतबार नहीं है
लब पे सजा के रखी है सब ने बनाबट
सब हैं अदाकार ,ऐतबार नहीं है
कौन यहां बेच दे ज़मीर किसी को
ये तो है बाज़ार ,ऐतबार नहीं है
डूब गए हम भँवर में तुझको बचाते
हम पे भी सरकार ,ऐतबार नहीं है ?
तेरा ख़ुदा हूँ यक़ीन करके कभी देख
फैंक दे पतवार ,ऐतबार नहीं है ?
दफ़्न कर इन मौसमों को याद में कहीं
देख ये गुब्बार ,ऐतबार नहीं है
कौन सुनेगा यहां "ख़याल" तेरी बात
सज गए दरबार ,ऐतबार नहीं है

ग़ज़ल -45- शाम ढले मन पंछी बनकर -उड़ान*

 

ग़ज़ल
 
शाम ढले मन पंछी बनकर दूर कहीं उड़ जाता है
सपनों के टूटे धागों से ग़ज़लें बुनकर लाता है
 
रात की काली चादर पर हम क्या-क्या रंग नहीं भरते
दिन चढ़ते ही क़तरा -क़तरा शबनम सा उड़ जाता है
 
तपते दिन के माथे पर रखती है ठंडी पट्टी शाम
दिन मज़दूर सा थक कर शाम के आँचल में सो जाता है
 
जाने क्या मज़बूरी है जो अपना गांव छोड़ ग़रीब
शहर किनारे झोंपड़ -पट्टी में आकर बस जाता है
 
जलते हैं लोबान के जैसे बीते कल के कुछ लम्हें
क्या खोया ? क्या पाया है मन रोज़ हिसाब लगाता है
 
चहरा -चहरा ढूंढ रहा है ,खोज रहा है जाने क्या
छोटी-छोटी बातों की भी , तह तक क्यों वो जाता है
 
कैसे झूट को सच करना है ,कितना सच कब कहना है
आप "ख़याल" जो सीख न पाए वो सब उसको आता है
 
 
 
 

 

ग़ज़ल -44- हाँ, दुःख तो है-उड़ान *

 
हाँ ,  दुःख तो है
अब है ,  सो है
 
दूर.. कहीं पर
सुख ,  तो है
 
सोचो मत तुम
देखो ,  जो है
 
दुख का क्या है
सोचो ,  तो है
 
ढूँढो,  रब्ब को
या मानो ,  है
 
क्यों फिर डरना
मरना ,  तो है
 
 

ग़ज़ल -43 -मैं तेरा अक्स हवाओं में बना देता हूँ -उड़ान *

 

मैं तेरा अक्स हवाओं में बना देता हूँ

दिल के ज़ख्मों को मैं ऐसे भी  हवा देता हूँ

 

अश्क आंखों कि तपिश से ही जला देता हूँ
आग को आग के पहलू में छुपा देता हूँ

 

याद कर लेता हूँ हर रोज़ तुझे शाम ढले

ख़ुद ही ख़ुद को मैं तडपने की सज़ा देता हूँ


अब वहां तू तो नहीं है ये पता है मुझको

मैं तेरे शह्र में जाता हूँ , सदा देता हूँ

 

ए उदासी तू मेरे पास कभी बैठ ज़रा

मैं तेरे बिखरे हुए बाल बना देता हूँ

 

दिल जो रोया है कभी याद में उसकी तो “ख़याल”

दिल को मैं मीर के कुछ शेर सुना देता हूँ

ग़ज़ल -42 -दर्द के आसमान कितने हैं- उड़ान*

 

दर्द के आसमान कितने हैं

सब्र के इम्तिहान कितने हैं

 

कल ये दुनिया बदल भी सकती है

लोग ये ख़ुश-गुमान कितने हैं

 

वो मुझे अब भी प्यार करता है

दिल में वहम-ओ-गुमान कितने हैं

 

 गोशे-गोशे में ख़ार बिखरे हैं

कहने को  बाग़बान  कितने हैं

 

मैंने सच बोलने की ठानी है

अब मेरे इम्तिहान कितने हैं

 

रात को दिन कहा गया अक्सर

ये सियासी बयान कितने हैं

 

घर भी , दफ़्तर भी , शाइरी भी “ख़याल “

एक जाँ , इम्तिहान कितने हैं

 

 

ग़ज़ल -41- भूख -ग़रीबी से बेकारी से , डर जाते हैं कितने लोग- उड़ान *



भूख -ग़रीबी से बेकारी से डर जाते हैं कितने लोग
ज़िंदा रहने की कोशिश मेंमर जाते हैं कितने लोग
 
रोज़ी -रोटी की चिंता में , घर आँगन से ऊब गये
मयखानों से पूछोशाम कोघर जाते हैं कितने लोग
 
धीमे –धीमे ,कतरा –कतरा ,तिल –तिल मरते देखे हैं
मुर्दा बस्ती में जीने की कोशिश में मर जाते हैं कितने लोग
 

ग़ज़ल-40-हुए दफन हम भी इसी आस पर-उड़ान *

 

ग़ज़ल


हुए दफन हम भी इसी आस पर

की फिर जी उठेंगे किसी  एक दिन

 पता जिस जहां का किसी  को नहीं

वहीं जा बसेंगे किसी एक दिन

 रहेगी हरिक शैय जहां में मगर

हमीं जल बुझेंगे किस्सी एक दिन


बहुत अनकहा है जो दिल में अभी

सुनो , तो कहेंगे किसी एक दिन


यही सोच कर दिल को बहला लिया

कहीं तो मिलंगे किसी एक दिन

 

 

 

ग़ज़ल -38- आप भी दिल और दुनिया से निपटकर देखिए-उड़ान *

 

ग़ज़ल

 

आप भी दिल और दुनिया से निपटकर देखिए

आप भी मेरी तरह हिस्सों में बटकर देखिए

 

आप दरिया हैं हमारा दर्द क्या जानेगे आप

आप भी तालाब की तरह सिमटकर देखिए


इस किताबे दिल में अफ़साने धडकते हैं कई

हो अगर फुर्सत कभी पन्ने पलटकर देखिए

 

इक सुलगता सा धुआं फैला हुआ है दूर तक

देखिए गुज़रे जमाने को पलटकर देखिए


घर में बच्चों के बिना कटते हैं कैसे रात दिन

पेड़ की सूनी सी शाखों से लिपट कर देखिए

 

 

 

 

 

 

 

 

ग़ज़ल-37- बंद कमरों में चरागों को बुझा कर रोईये-उड़ान *

 

ग़ज़ल

 

बंद कमरों में चरागों  को बुझा कर रोईये

रोइए  तन्हा अंधेरों में कभी ग़र रोईये

 

हो गया अहसास से खाली जहां हर आदमी

अब वीरानों में दरख्तों ले लिपट कर रोईये


वक़्त की आंधी उड़ा कर ले गी सब हसरतें

ये निशाँ बाकी है ,अब ये खत जलाकर रोईये


कल थे इन आंखों में कुछ सपने किसी  आकाश के

देखकर अब इन परिंदों के कटे पर रोईये

 

दूर तक कोई ख़याल अपना नज़र आता नहीं

मानकर इस वक़्त को अपना मुकद्दर रोइए

 

 

ग़ज़ल-36-दिल में ग़म हैं ,लब हसते हैं-उड़ान *

 

ग़ज़ल


दिल में ग़म हैं ,लब हसते हैं

अंगारों पर फूल खिले हैं

 

सपने शबनम के कतरे हैं

सच की धुप में उड़ जाते हैं

 बाज़ारों में धूम मची है

और घरों में सन्नाटे हैं


इक टहनी पे फूल खिला है

एक से कुछ पत्ते टूटे हैं


गुजरी लम्बी रुत पतझर की

अब नन्हें अंकुर फूटे हैं

 दिल टपका है कतरा कतरा

आंखों से आंसू टपके हैं

 

 

 

ग़ज़ल -35- जल –बुझा हूँ बचा कहां हूँ मैं-उड़ान

 

ग़ज़ल


जल –बुझा हूँ बचा कहां हूँ मैं

राख छू कर बता कहां हूँ मैं

 

मुझो होना था साथ तेरे मगर

देख लेकिन पड़ा कहां हूँ मैं

 

ये मेरे घर का रास्ता तो नहीं

फिर में इस राह पर चला क्यों हूँ

 

मुझसे मिलने तू कभी आ तो सही

मैं यहीं हूँ कहां गया हूँ मैं

 

ग़ज़ल -34- गले मिलते हैं सबसे मुस्कुराते हैं-उड़ान *

 
ग़ज़ल
 
गले मिलते हैं सबसे मुस्कुराते हैं
की हम हर रस्म बाखूबी निभाते हैं
 
सिखा दी वक्त ने हमको अदाकारी
उदासी ओड़कर भी मुस्कुराते हैं
 
अकेला हो न कोई इस जमाने में
अकेले तो शजर भी सूख जाते हैं
 
भरे रहते थे जो अम्मा की थैली में
वो आने चार आने याद आते हैं

जो हो जाते हैं ओझल आंख से उनके
कि अक्सर नाम तक भी भूल जाते हैं
 
चुनर ख़्वाबों से रंग ली है वो बैठे हैं
अब उसपे इश्क का गोता लगाते हैं
 
 

Wednesday 4 January 2023

ग़ज़ल -33- क्यों ख़िज़ाँ की शोख़ी इस दर्जा है हमको भा गयी-उड़ान *

ग़ज़ल

 

क्यों ख़िज़ाँ की शोख़ी इस दर्जा है हमको भा गयी

कोंपलें फूटीं तो इस दिल में उदासी छा गयी

 

चाँद रोटी सा नज़र आता है फ़ाक़ों में उन्हें

जिन गरीबों को ये रोटी टुकड़ा –टुकड़ा खा गयी

 

रेशमी चुनरी , ज़री का सूट फबता था उसे

बैठे-बैठे याद मुझको एक लड़की आ गयी

 

गर्द में गुम शह्र का ये हाल है देखो “ख़याल”

अब जमीं उड़कर दरख़्तों के बदन पर आ गई


उधर तुम हो , ख़ुशी है

  उधर तुम हो , ख़ुशी है इधर बस बेबसी है   ये कैसी रौशनी है अँधेरा ढो रही है   नहीं इक पल सुकूं का ये कोई ज़िंदगी है   मुसीबत है , बुला ले ये ...