यूं नहीं कि सर पे कोई छत नहीं या घर नहीं
हाँ मगर माँ -बाप का साया अभी सर पर नहीं
टूटने की हद से आगे खींचती है ज़िंदगी
मैं भी हैरां हूं मैं आख़िर टूटता क्यों कर नहीं
कौन सी ये राह है लेकर चली है किस तरफ़
चल रहा जिस राह पर उस पर तो मेरा घर नहीं
हम थे जब तक पास पीली पत्तियों का शोर था
अब तो महके हैं तुम्हारे बाग़ अब पतझर नहीं
किस तरह होगा गुज़ारा , घर चलेगा किस तरह
इसके सिवा अब ज़हन में मेरे कोई भी डर नहीं
दिल में ही बस क़ैद हैं ख़ुश-रंग सी कुछ हसरतें
तितलियाँ तो हैं मगर इन तितलियों के पर नहीं
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