Sunday 11 February 2024

मोहब्बत पुल बनाती है तो नफ़रत तोड़ देती है - नई ग़ज़ल *

मोहब्बत पुल बनाती है तो नफ़रत तोड़ देती है 
कि हर सदभाव का धागा सियासत तोड़ देती है 

कोई मज़बूत कितना भी  हो  ग़ुर्बत तोड़ देती है 
ग़रीबों को यहाँ  पैसों की क़िल्लत तोड़ देती है 

बचा लेती है जैसे तैसे शाहों की हवेली को 
ग़रीबों  के मगर छप्पर  हुकूमत तोड़ देती है 

कई  लांछन हैं मक्कारों पे पर  वो मौज़ करते हैं 
मगर  ख़ुद्दार  को छोटी सी  तोहमत तोड़ देती है  

हज़ारों के थे कल जो बैल अब कूड़े पे बैठे हैं  
समय की मार ऐसी है ये क़ीमत  तोड़ देती है 

किसी भी आदमी को कर तो देती है ये दौलतमंद 
मगर ये चार सौ बीसी है , बरकत तोड़ देती है 

हरा देता है इक छोटा सा तिनका  ही "ख़याल" इसको 
 नदी की धार कहने को तो परबत तोड़ देती है 

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