उधर तुम हो , ख़ुशी है
इधर बस बेबसी है
ये कैसी रौशनी है
अँधेरा ढो रही है
नहीं इक पल सुकूं का
ये कोई ज़िंदगी है
मुसीबत है , बुला ले
ये बाहर क्यों खड़ी है?
किनारे पर है कश्ती
किनारा ढूंढ़ती है
मेरी पचास ग़ज़लें- सतपाल ख़याल
Saturday 20 April 2024
उधर तुम हो , ख़ुशी है
Wednesday 13 March 2024
ये रौनकें , ये महिफ़िलें , ये मेले इस जहान के-दस्तक
मुआमला दिलों का ये बड़ा ही पेचदार है
कि जिसने ग़म दिए हमारा वो ही ग़म-गुसार है
न मंज़िलों की है ख़बर न दूरियों का है पता
भटक रहे हैं कब से हम ये कैसी रहगुज़ार है
किसी ने भेजा आ गये ,बुला लिया चले गए
कि मौत हो या ज़िंदगी , किसी का इख़्तियार है ?
ये रौनकें , ये महिफ़िलें , ये मेले इस जहान के
ए ज़िंदगी , ख़ुदा का भी तुझी से कारोबार है
उसी ने डाले मुश्किलों मे मेरे जान-ओ-दिल मगर
उसी पे जाँ निसार है , उसी पे दिल निसार है
तुमीं को हमने पा लिया , तुमीं को हमने खो दिया
तू ही हमारी जीत है, तू ही हमारी हार है
Tuesday 12 March 2024
सलीबों को उठाना आ गया है*
मुझे जीवन बिताना आ गया है
हमें परबत उठाना आ गया है
अलग कर दो मुझे अब कारवाँ से
रुको , मेरा ठिकाना आ गया है
चढ़ा है रंग दुनिया का ब-ख़ूबी
तुम्हें भी दिल दुखाना आ गया है
शिकायत ही नहीं करता किसी से
इस जमीं में है , आसमान में हैं *
इस जमीं में है , आसमान में हैं
उनकी मुश्किल तुम्हारे ध्यान में है ?
बड़बड़ाता है मुझ में रह-रह कर
क्या कोई और इस मकान में है
क्यों सितारों की आंखें नम -नम हैं
चाँद तो अब भी आसमान में है
ईंट गारे की फ़िक्र क्या करना
घर तो आख़िर तेरा मसान में है
देख बिखरा है घर सम्भाल इसे
तुमको रहना इसी मकान में है
Friday 8 March 2024
तेरे बीमार रहने से ही ये बाज़ार चलता है*
तेरे बीमार रहने से ही ये बाज़ार चलता है
दवाऐं बेचने वालों का कारोबार चलता है
रखा जाता है हमको भूख बीमारी के साए में
कुछ ऐसे तौर से इस देश में व्यापार चलता है
वही लिक्खा है अख़बारों ने जो सरकार ने चाहा
सियासत के इशारों पर ही तो अख़बार चलता है
सजाएं भी आवार्डों की तरह मरने पे मिलती हैं
कुछ ऐसी चाल से इन्साफ का दरबार चलता है
सियासत काठ की हांडी जो बारंबार चढ़ जाए
ये वो सिक्का है , जो खोटा है , जो हर-बार चलता है
कमाता है कोई इतना के पड़पोते भी पल जाएं
कमाते हैं कई ता-उम्र बस घर -बार चलता है
लोग आते हैं , तडपते हैं ,चले जाते हैं फिर इक दिन
न जाने किसके कहने पर तेरा संसार चलता है
चढ़ते-चढ़ते उतर गया पानी*
चढ़ते-चढ़ते उतर गया पानी
बनके आंसू बिखर गया पानी
पानियों को भी काट दे ये कटार
इस सियासत से डर गया पानी
एक सहमी हुई सी मछली है
कैसे पांनी से डर गया पानी
जल रहे घर की बात आई तो
फिर मदद से मुकर गया पानी
दूब की नोक पे हो शबनम ज्यूं
त्यूँ पलक पे ठहर गया पानी
आंख तेरी ज़रा सी नम जो हुई
मेरी आँखों में भर गया पानी
जब से बिछड़ा "ख़याल" सागर से
देख फिर दर -ब -दर गया पानी
Tuesday 20 February 2024
मैं शायर हूँ ज़बाँ मेरी कभी उर्दू कभी हिंदी*
कि मैंने शौक़ से बोली कभी उर्दू कभी हिंदी
यहाँ हिन्दी भी दुःख में है तो उर्दू भी परेशां है
हैं बेबस एक ही जैसी कभी उर्दू कभी हिंदी
अदब को तो अदब रखते ज़बानों पर सियासत क्यों
सियासत ने मगर बाँटी कभी उर्दू कभी हिंदी
जो आसां हो ,सरल ,सीधी , ज़बां अपनी
ये मेरी भी है तेरी भी, कभी उर्दू कभी हिंदी
Monday 19 February 2024
New Ghazal- ख़यालों से बनाई क़ैद में था *
कभी मैं रौशनी की क़ैद में था
डरा पल तौलते ही वो अचानक
रिहाई हो रही थी तब मैं समझा
Sunday 11 February 2024
मोहब्बत पुल बनाती है तो नफ़रत तोड़ देती है - नई ग़ज़ल *
Thursday 1 February 2024
यूँ नहीं इस शहर में मेरा कोई भी घर नहीं -नई ग़ज़ल*
Saturday 27 January 2024
जब उजाला हुआ तो दम तोड़ा *
एक ताज़ा ग़ज़ल
दैर तोड़ा , कभी हरम तोड़ा
जब उजाला हुआ तो दम तोड़ा
यूं तिल्सिम -ए - ग़म-ओ -अलम तोड़ा
आज फिर मय-कदे में बैठे हो
हमको तोड़ा है बेबसी ने बहुत
हमको हालात ने तो कम तोड़ा
Wednesday 17 January 2024
खुदा को आपने देखा नहीं हैं *-New
Monday 15 January 2024
New-फूल गिरे टहनी से तो भी आँखें नम हो जाती हैं *
तेज़ लवें भी जल-जलकर थोड़ी तो मद्धम हो जाती हैं
ज़ख्मों से उठ -उठ कर टीसें ख़ुद मरहम हो जाती हैं
छोटी –छोटी बातों पर अब दिल मेरा दुख जाता है
फूल गिरे टहनी से तो भी आँखें नम हो जाती हैं
Tuesday 9 January 2024
बस इतना सा तो है किस्सा तुम्हारा -New*
बस इतना सा तो है किस्सा तुम्हारा
किसी ने जी लिया सोचा तुम्हारा
मोहब्बत का भरम कायम है अब तक
कभी परखा नहीं रिश्ता तुम्हारा
तुम्हें उस महजबीं से क्या तवक्कों
कभी देखा भी है चहरा तुम्हारा
हमारे हाथ छोटे थे ए किस्मत
कभी टूटा नहीं छीका तुम्हारा
बिना कारण ही डांटे तूने बच्चे
कहां निकला है अब गुस्सा तुम्हारा
तुम्हारी मेहनतों में सेंध मारी
किसी ने काटा है बोया तुम्हारा
बता क्या खोजती हो दादी अम्माँ
कबाड़ी ले गया चरखा तुम्हारा
"ख़याल" इस शायरी के शग़्ल में क्या
हुआ भी है कहीं चर्चा तुम्हारा
Thursday 4 January 2024
साज़िशें हैं आदमी के मन से खेला जाएगा -New ghazal*
साज़िशें हैं आदमी के मन से खेला जाएगा
आपने क्या सोचना है ,ये भी सोचा जाएगा
आज जो मुट्ठी में है बालू उसे कस के पकड़
कल जो होगा ,कल वो होगा ,कल वो देखा जाएगा
आज़माना छोड़ रिश्ते को बचाना है अगर
टूट जायेगा ये रिश्ता जब भी परखा जाएगा
कोंपलें उम्मीद की फूटेंगी इसके बाद , पर
पहले इस टहनी से हर पत्ते को नोचा जायेगा
आदमी को आदमी से जिसने रक्खा जोड़कर
अब मोहब्बत का वो जर्जर पुल भी तोड़ा जाएगा
देखते हैं टूटती है सांस कैसे , कब , कहां
पेड़ से कब आख़िरी पत्ते को तोड़ा जाएगा
तय तो है मेरी सज़ा पहले से तेरी बज़्म में
अब बताने को कोई इलज़ाम खोजा जाएगा
दाँव पर ईमान भी मैंने लगा डाला "ख़याल"
खेल में अब आख़िरी यक्का भी फेंका जाएगा
दवा आई नई बाज़ार में क्या -New Ghazal*
ग़ज़ल – सतपाल ख़याल
ग़रीबों की गिरी दस्तार में क्या
कभी चर्चा हुआ सरकार में क्या
बहुत ख़बरें हैं बीमारी की फिर से
दवा आई नई बाज़ार में क्या
सियासत की सियाही थी क़लम में
हुआ था क्या , छपा अख़बार में क्या
रुकी है जांच , सब आरोप ख़ारिज
वो शामिल हो गए सरकार में क्या
कहानी लिखने वाले में है सब कुछ
बुरा -अच्छा किसी किरदार में क्या
जो ताक़त है क़लम की धार में वो
किसी भाले में या तलवार में क्या
जहां देखो , जिसे देखो , दुखी है
सुखी भी है कोई संसार में क्या ?
"ख़याल" अब रेस में शामिल नहीं हम
इस अंधी दौड़ में , रफ़्तार में क्या
Wednesday 20 December 2023
Punjabi Ghazal- ਨਹਿਰ ਦੇ ਕੰਢੇ ਕਿੱਕਰ ਥੱਲੇ ਬੈਠ ਗਏ
बैठे -बैठे सोच रहे हैं क्या -क्या कुछ- New
बैठे -बैठे सोच रहे हैं क्या -क्या कुछ
दुनिया में हम देख चुके हैं क्या -क्या कुछ
प्यार, मोहब्बत ,रिश्ते -नाते और वफ़ा
सच ,खुद्दारी , नेकी ,
हम जैसों को रोग लगे हैं क्या क्या कुछ
बचपन ,यौवन , पीरी , मरघट
हैरत से हम देख रहे हैं क्या -क्या कुछ
बेटा , भाई , मालिक ,नौकर या शौहर
नाटक में हम रोज़ बने हैं क्या -क्या कुछ
जिस्म ,ईमान की इस मंडी में सब कुछ है
देखो तो सब बेच रहे हैं क्या क्या कुछ
करते हैं अब कूच सराये- फ़ानी से
इन आंखों से देख चले हैं क्या -क्या कुछ
रेत ,समुन्द्र ,फूल ,बगीचे ,दफ़तर ,घर
गजलों में अहसास बने हैं क्या -क्या कुछ
कल कुछ अच्छा होने की उम्मीद "ख़याल"
इस उम्मीद से ख़्वाब सजे हैं क्या क्या कुछ
Monday 18 December 2023
मैं आँखें देख कर हर शख़्स को पहचान सकता हूँ- उड़ान
मैं आँखें देख कर हर शख़्स को पहचान लेता हूँ
बिना जाने ही अकसर मैं बहुत कुछ जान लेता हूँ
वो कुछ उतरा हुआ चहरा, वो कुछ सहमी हुई आँखें
मुहब्बत करने वालों को तो मैं पहचान लेता हूँ
तजुर्बों ने सिखाई है मुझे तरकीब कि मैं अब
मुसीबत सर उठाये तो मैं सीना तान लेता हूँ
Friday 15 December 2023
आसमानों से उतारी धूप को- उड़ान *
आसमानों से उतारी धूप को
ले गये साए हमारी धूप को
बुझ
गया दिन शाम की इक फूँक से
पी गयी कालिख़ बेचारी धूप को
मौसमों ने की सियासत देखिए
खा गया कोहरा हमारी धूप को
छीन कर सूरज गरीबों से जनाब
कर दिया किश्तों में जारी धूप को
हर
सुबह सूरज उठाकर चल पड़े
पीठ
पर लादा है भारी धूप को
अपने
हिस्से का उजाला बेच कर
हमने
लौटाया उधारी धूप को
अपने
सूरज खूंटियों पर टांग दो
पहनो
मग़रिब की उतारी धूप को
बर्फ़
जब जमने लगी अहसास की
फिर
बनाया हमनें आरी धूप को
Monday 20 November 2023
दोस्त मिलते हैं , दिल दुखाते हैं -उड़ान *
सब तेरे नाम से बुलाते हैं
ये हुनर वक़्त ने सिखाया हमें
आँख रोए तो मुस्कुराते हैं
लोग हंसते हैं दिल-शिकस्ता पे
राह मुश्किल है शौक़ की और हम
बुतशिकन मेरे न काफ़िर मेरे
बुतशिकन मेरे न काफ़िर मेरे
मैं नमाजी हूँ न मंदिर मेरे
टीस इस दिल से उठी है शायद
“ज़ख्म ग़ायब है बज़ाहिर मेरे”
वक़्त आने पे बदल जायेंगे
हैं तो कहने को ये आखिर मेरे
रात कटते ही सहर आयेगी
सोचता क्या है मुसाफ़िर मेरे
मै न उर्दू ,न मैं हिंदी साहिब
बस ग़ज़ल हूँ मैं ए शाइर मेरे
कितने रंगो में है रौशन मिट्टी
ए ख़ुदा! मेरे, मुसव्विर मेरे
ये हरे लाल से परचम जिनके
मैं ख़ुदा हूँ ये हैं ताजिर मेरे
सतपाल ख़याल
देहरी पर इक दीप जला कर बैठी है-उड़ान *
देहरी पर इक दीप जला कर बैठी
है
कोई विरहन ख़्वाब सजा कर बैठी है
सूरज की तस्वीर बना कर बैठी है
रात हमें कैसे उलझा कर बठी
है
किस्मत उड़ने देती है कब
सपनों को
पाँव की जंजीर बना कर बैठी है
पास में उसके दीप जलाकर बैठी है
रोते रोते हंसने लग जाती है देख
कैसे दुःख का बोझ उठा कर बैठी है
दुःख की गठरी धोते रहना उफ़ नही कहना है -दस्तक
दुख की गठरी धोते रहना उफ़ नही कहना है
जब तक सांस चलेगी तब तक ज़िंदा रहना है
दुख रोटी है ,दुख चूल्हा है ,दुख ही पेट की भूख
दुःख ओढ़ा है , दुख ही बिछाया , दुख ही पहना है
चिंता साथ हुई है पैदा ,साथ ही जायेगी
विरहन का सिंगार है चिंता ,
चिंता बिंदिया , चिंता काजल चिंता गहना है
पहना है
इस तिनके को इस दरिया के साथ ही बहना है
अंतिम रेखा दूर बहुत है , चलते रहना है
पलकों पर इक आंसू आकर ठहरा है- उड़ान *
पलकों
पर इक आंसू आकर ठहरा है
मेरे दुःख पर चौकीदार का पहरा है
सागर पर इक बूँद का कैसा पहरा है
पलकों पर इक आंसू आकर ठहरा है
ख़ुशियों
पर इस चौकी दार का पहरा है
कितने
दुःख बैठे इसकी गहराई में
दिल तो अपना सागर से भी गहरा है
कैसा
सपना देख रहा है पागल मन
आगे
पीछे बस सहरा ही सहरा है
रात भले कितनी भी लम्बी हो जाए
मेरी आंख में सपना बहुत सुनहरा है
जंगल
की फरियाद सुनेगा कौन “ख़याल”
जिसके
हाथ में आरी है वो बहरा है
हमको तकदीर बचा ले कोई बात बने-उड़ान *
अब कोई आके खंगाले तो कोई बात बने
गम से हारे नहीं हम ,हमसे नहीं जीता गम
कोई सिक्का जो उछाले तो कोई बात बने
मैं ख्यालों में जिसे चूम रहा हूँ, मुझको
वो गले से जो लगाले तो कोई बात बने
किसी ने की है ख़ुदकुशी , मरा है आम आदमी -उड़ान *
किसी ने की है
ख़ुदकुशी , मरा है आम आदमी
कि जिंदगी से इस कदर
खफ़ा है आम आदमी
ये मजहबी फसाद सब
,सियासती जूनून हैं
जुनू की आग में सड़ा
जला है आम आदमी
ख़ुद अपना खून बेचकर
खरीदता है रोटियां
गरीब है इसीलिए बिका
है आम आदमी
ख़याल में है रोटियाँ
तो ख़्वाब में भी रोटियां
बस इनके ही जुगाड़
में मरा है आम आदमी
खुशी मिली उधार की .लिया मकां कर्ज़ पर
यूं उम्र बहर के
कर्ज़ में दबा है आम आदमी
सियासती फसाद हो
,बला हो कोई कुदरती
है बेगुनाह पर सदा
, मरा है आम आदमी
हमसे मिलने कैसे भी करके बहाने आ गया-उड़ान *
ग़ज़ल
हमसे मिलने कैसे
भी करके बहाने आ गया
यार अपना हाले-दिल
सुनने –सुनाने आ गया
कोंपलें फूंटी भार
आने को थी कि फिर से वो
ज़र्द मौसम लेके हमको
आजमाने आ गया
मजहबी उन्माद भडका
जब हमारे शह्र में
मेरा हमसाया ही मेरा
घर जलाने आ गया
वक़्त ने कल फूंक
डाला था चमन मेरा मगर
आज वो कुछ फूल गमलों
में उगाने आ गया
बह गईं सैलाब में सब
हस्ती गाती बस्तियां
अब वो गोवर्धन को उंगली
पे उठाने आ गया
कुछ ही दिन बीते
ख़याल अपने यहाँ पर चैन से
फेर फिर तकदीर का
हमको डराने आ गया
Tuesday 7 November 2023
पानी पर तस्वीर बना कर देखूंगा-उड़ान *
फिर मैं तेरे ख़्वाब सजा कर देखूंगा
गाँव , गली ,खिड़की से पूछूंगा जाकर
मैं तुम को आवाज़ लगा कर देखूंगा
आंखों के पानी से लिखूंगा गजलें
मैं पानी से दीप जला कर देखूंगा
लोग सलीब उठा कर कैसे चलते हैं
मैं इक शख्स का बोझ उठा कर देखूंगा
कोई एक सुबह तो अच्छी आएगी
मैं इक आस की जोत जला कर देखूंगा
हो सकता है कोई किनारा मिल जाए
दूर क्षितज के पार मैं जा कर देखूंगा
सूना कर देखूंगा
जुटा कर देखूंगा
कमा कर देखूंगा
Saturday 4 November 2023
तुझे ज़िंदगी यूँ बिताया है मैनें-उड़ान *
Friday 27 October 2023
नज़्म – जंग रोक दीजिए
नज़्म
– जंग रोक दीजिए –सतपाल ख़याल
बिखर
गये हैं कितने घर, ये जंग रोक दीजिए
लहू
बहा इधर –उधर , ये जंग रोक दीजिए
जले
हैं जिस्म आग में , धुआँ – धुआँ है बस्तियां
किसी
के बच्चे मर गये किसी की माँ नहीं रही
कहीं
पिता के हाथ में है लाश अपने बेटे की
कहीं
पे माँ की लाडली सी नन्ही जाँ नहीं रही
ये
मज़हबों के नाम पर न आदमी को बांटिये
न
टूटे और कोई घर, ये जंग रोक दीजिए
अभी
भी वक़्त है कहीं पे बैठ के ये सोचिए
कि
जंग की है आग क्यों लगी हुई यहाँ –वहां
गिरा
न दे ये सबके घर , जला न दे ये सबके घर ,
ये साजिशों
को आग है , जली
हुई यहाँ –वहां
कहीं
कोई हो सुन रहा , यही मेरी है इल्तिजा
मैं कह
रहा पुकार कर , ये जंग रोक दीजिए
बिखर
गये हैं कितने घर , ये जंग रोक दीजिए
लहू
बहा इधर –उधर , ये जंग रोक दीजिए
उधर तुम हो , ख़ुशी है
उधर तुम हो , ख़ुशी है इधर बस बेबसी है ये कैसी रौशनी है अँधेरा ढो रही है नहीं इक पल सुकूं का ये कोई ज़िंदगी है मुसीबत है , बुला ले ये ...
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ज़िंदगी इम्तिहान है प्यारे रोज़ मुश्किल में जान है प्यारे ये तसव्वुर के आसमानों पर शाइरी की उड़ान है प्यारे देख पत्ते तो झड़ गए कब के...
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